प्रेम, त्याग और भक्ति की अमर ध्वजा: संत कवयित्री मीरा बाई


- मीरा जयंती – 29 नवंबर पर विशेष
(डॉ. वीरेन्द्र भाटी मंगल, वरिष्ठ साहित्यकार)
भारतीय भक्ति परंपरा में संत-कवयित्री मीरा बाई एक ऐसा अनुपम नाम हैं जो समय की सीमाओं से ऊपर उठकर अमर हो गया है। राजघराने में जन्म लेने के बावजूद, उन्होंने सांसारिक वैभव को त्यागकर कृष्ण भक्ति और प्रेम को ही अपने जीवन का सर्वोच्च शिखर मान लिया। उनका जीवन संघर्ष, समर्पण और आध्यात्मिक विद्रोह की एक ऐसी अद्वितीय यात्रा है, जिसके सामने बड़े से बड़ा राजसत्ता का बल भी फीका पड़ जाता है। 29 नवंबर को मनाई जाने वाली मीरा जयंती केवल एक जन्मोत्सव नहीं है, बल्कि प्रेम और स्वतंत्रता की उस निर्भीक पुकार का उत्सव है जिसे मीरा ने अपनी वाणी और आचरण से जीकर दिखाया।



मीरा का प्रेम: आत्मा का उदात्त मिलन
मीरा बाई के भक्ति-पथ की शुरुआत बचपन में ही हो गई थी, जब उन्होंने कृष्ण को अपना प्रियतम, पति और ईश्वर मान लिया। यह प्रेम सांसारिक नहीं, बल्कि आत्मा का वह उदात्त मिलन था, जिसका कोई अंत नहीं। उनकी कविता भक्ति में प्रेम का वेदनामय स्वर है—निर्भय, निष्कपट और निश्छल। उनके पदों में यह भाव स्पष्ट झलकता है, जैसे: “पायो जी मैंने राम-रतन धन पायो।”



राजसत्ता के विरोध में साहसी स्वर
मीरा राजपरिवार (राणा परिवार) का हिस्सा थीं, किंतु उनका मन राजदरबार की मर्यादाओं के बजाय मंदिरों, संत-साधुओं और प्रभु-कीर्तन में बसता था। इसे राजघराने की प्रतिष्ठा के विरुद्ध समझा गया, जिससे उन्हें सामाजिक और पारिवारिक दबावों का सामना करना पड़ा। उन्हें विष देने, सांप भेजने और कांच के बिछौने पर लिटाने जैसे प्रयास किए गए, पर हर बार उन्हें दिव्य संरक्षण मिला। दरअसल, मीरा केवल भक्त नहीं थीं, वह आध्यात्मिक विद्रोह की प्रतीक थीं। उन्होंने यह सिद्ध किया कि स्त्री की स्वतंत्र चेतना किसी राजसत्ता से छोटी नहीं होती।
भक्ति का शाश्वत साहित्य और समकालीन संदेश
मीरा बाई की रचनाएँ सरल शब्दों में गहरे आध्यात्मिक अनुभव का संचार करती हैं। उनके पदों में विरह की तपस्या, मिलन की अनुभूति, और संसार से विरक्ति का गहन भाव है। उनके लोकप्रिय पद, जैसे “मेरे तो गिरधर गोपाल, दूसरो न कोई” आज भी भक्ति-रस के अमृत की तरह जन-जन में गाए जाते हैं। यह साहित्य न तो किसी ग्रंथ का बंधक है, न किसी मत का; यह लोक की धड़कन में जीवित है।
मीरा का समकालीन संदेश आज के भौतिकता और तनाव से जूझ रहे समाज के लिए अत्यंत प्रासंगिक है। वह हमें सिखाती हैं कि प्रेम स्वार्थ नहीं, समर्पण है; भक्ति किसी डर का नहीं, आत्मविश्वास का मार्ग है; और सच्ची स्वतंत्रता बाहरी नहीं, भीतर की शांति है।
स्त्री-सशक्तिकरण की प्रारंभिक आवाज
आधुनिक नारीवाद से सदियों पहले, मीरा ने यह घोषणा कर दी थी कि स्त्री अपनी आस्था और जीवन-मार्ग स्वयं चुन सकती है। उन्होंने अपने गीतों और आचरण से बताया कि स्त्री की स्वतंत्रता स्वाभाविक है और आत्मा की पुकार किसी सामाजिक बंधन से बड़ी होती है। इस दृष्टि से, मीरा बाई भारतीय स्त्री-जागरण की प्रारंभिक और सशक्त आवाज हैं।
मीरा बाई का जीवन हमें यह सीख देता है कि जीवन में चाहे जितनी बाधाएं आएं, अपने सत्य, अपने प्रेम और अपने मार्ग पर दृढ़ रहना ही सच्ची साधना है। उनकी जयंती स्त्री आत्मा की आजादी, स्त्री की आवाज और प्रेम की परम गूंज का युगों-युगों तक स्मरण कराती रहेगी।

(लेखक: डॉ. वीरेन्द्र भाटी मंगल, वरिष्ठ साहित्यकार, लाडनूं 341306 (राजस्थान) | संपर्क: 9413179329)








