आचार्य भिक्षु के दया सिद्धांत का विश्लेषण: पाप आचरण से आत्मा की रक्षा ही धर्म


गंगाशहर , 3 नवम्बर। जैन श्वेताम्बर तेरापंथी सभा गंगाशहर द्वारा आचार्य श्री भिक्षु जन्म त्रिशताब्द्धी समारोह के अंतर्गत “दया : एक विश्लेषण” संगोष्ठी में उग्र विहारी तपोमूर्ति मुनि श्री कमल कुमार जी स्वामी ने आचार्य भिक्षु के मौलिक दया सिद्धांत को स्पष्ट किया। मुनि श्री ने कहा कि जहाँ पहले दया का अर्थ केवल जीवों को बचाना था, वहीं आचार्य भिक्षु ने इसे “पाप आचरण से आत्मा की रक्षा” के रूप में परिभाषित किया। उन्होंने बताया कि धर्म का संबंध जीव के जीने या मरने से नहीं, बल्कि संयम से है; मारने की प्रवृत्ति (हिंसा) को रोकना ही अहिंसा और दया है, जबकि जीव का आयुष्य के बल पर जीना या मरना दया या हिंसा नहीं है।



मुनि श्री ने बल दिया कि लौकिक और आध्यात्मिक धर्म एक नहीं हैं, और धर्म केवल त्याग में निहित है। उन्होंने सामायिक को सबसे बड़ी दया बताया, क्योंकि इससे छः काय के जीवों की हिंसा रुकती है और आत्मा के प्रति दया होती है। अंत में, उन्होंने कहा कि सच्ची दया असंयमी को संयमी और अज्ञानी को ज्ञानी बनाने में है। उन्होंने कहा कि धन से धर्म नहीं होता है, पैसों से कभी दया नहीं होने वाली है।
मुनिश्री ने कहा “जिण मारग री नींव दया पर, खोजी हुवें ते पावें। जो हिंसा मांहें धर्म हुवें तो,जल मथीयां घी आवें।।
जिन शासन की नींव दया पर टिकी हुई है। उसे गवेषक आदमी ही पा सकता है। यदि हिंसा में धर्म हो तो जल मथने पर घी निकल आए।मुनिश्री ने लोगों से अपनी विवेक चेतना जगाकर यह समझने का आग्रह किया कि जहां दया है, वहीं अहिंसा है।











