संवत्सरी पर्व एक शुद्ध आध्यात्मिक पर्व है- मुनि कमलकुमार

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भारत देश ऋषि मुनियों की जन्म भूमि हैं। यहां अनेक ऋषि मुनियों ने जन्म लेकर साधना कर जन -जन को आलोकित किया है। साधना के अनेक उपक्रम देखने को आज भी मिल रहे हैं। कई जलाहारी हैं ,कई फलाहारी हैं, कई मौनी हैं ,कई ध्यानी हैं, कई रात -दिन खड़े ही रहते हैं, कई सो कर नींद नहीं लेते हैं, कई निर्वस्त्र हैं, कई जटाधारी है आदि अन्य अनेक प्रकार के साधक आज भी देखने को मिलते हैं।

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जैन धर्म एक आध्यात्मिक धर्म है। इस धर्म में 24 तीर्थकरों की मान्यता है। जैसे सप्ताह के सात दिन समाप्त हुए और पुनः दूसरा सप्ताह प्रारंभ हो जाता है। पक्ष के 15 दिन सम्पन्न हुए और दूसरा पक्ष प्रारंभ हो जाता है। मास के 31 दिन पूर्व हुए दूसरा महिना प्रारंभ हो जाता है। ठीक इसी प्रकार काल विभाग के दो आरे होते है , उत्सर्पिणी और अवसर्पिणी काल, प्रत्येक के 6 6 आरे होते हैं। तीसरे आरे के अंत में तीर्थंकर होते हैं और चैथे आरे के अंत तक ही रहते हैं। वर्तमान में पांचवां आरा चल रहा है। छठे आरे के बाद पुनः आरों का क्रम प्रारंभ हो जाता है और पुनः तीसरे आरे से तीर्थकर पैदा होते हैं। इस प्रकार यह संसार अनादि काल से चल रहा है और अनंत तीर्थंकर हो चुके हैं।
प्रवाह रूप में संवत्सरी महापर्व अनादिकाल से मनाया जा रहा है। धर्म ग्रंथों में नवान्हिक दिनों का बहुत महत्व बताया गया है, जिसमे आठ दिन तप, जप स्वाध्याय , मौन ,पौषध, प्रतिक्रमण ,करके आत्मशोधन किया जाता है और नवमें दिन सबसे क्षमा याचना की जाती है। इस पांचवें आरे में भी ऐसे- ऐसे साधक देखने को मिलते हैं कि आठो दिन संसार की हर प्रवृत्ति से मुक्त होकर आत्म साधना में लग जाते हैं। व्यापार भोजन- पानी से मुक्त होकर प्रतिपूर्ण पौषध कर लेते हैं। पौषध करने वाला व्यक्ति समस्त सावध कार्यों से अर्थात पापकारी कामों से मुक्त होकर ध्यान, जाप, स्वाध्याय, आत्मचिंतन, प्रतिक्रमण, आदि की उत्कृष्ट क्रियाओं में लग जाता है।

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जैन धर्म के मुख्य दो सम्प्रदाय है ,दिगंबर और श्वेताम्बर। श्वेताम्बर पर्युषण भाद्रव कृष्णा द्वादशी या त्रयोदशी से प्रारंभ कर भाद्रव शुक्ला चैथ या पाचम को संवत्सरी पर्व मनाते है। जबकि दिगंबर समाज में भाद्रव शुक्ला पंचमी या षष्ठी से प्रारंभ कर अनंत चवदश तक अर्थात दश दिवसीय पर्व मनाते है, जिसे दशलक्षण पर्व की संज्ञा दी गई है। उनके वहां भी कई भाई- बहन 10 दिन तक पूर्ण संयम का जीवन जीते हैं। केवल दिन में एक बार पानी पीते है बाकी का समय ध्यान ,जाप ,स्वाध्याय, आत्मचिंतन में लगाते है। पर्व मनाने का लक्ष्य आत्म शुद्धि का है। प्रतिक्रमण कर चैरासी लाख जीवा योनि से क्षमायाचना की जाती है। क्योंकि यह जीव संसार में अनादिकाल से है इसका संबंध सभी जीव योनियों के जीवों से हो चुका है। अगर किसी से किंचित मात्र भी राग-द्वेष आया हो तो सरल मना हो कर सब जीवों से क्षमा याचना की जाती है ,ताकि बार-बार जन्ममरण नहीं करना पड़े।
संवत्सरी महापर्व का बच्चे -बच्चे के मन में आकर्षण देखने को मिलता है। छोटे -छोटे बच्चे भी आठ -आठ दिन भोजन जैसी आवश्यक वस्तु का स्वेच्छा से त्याग कर देते हैं। अन्य अनेक लोग भी अगर उपवास नहीं कर सकते हैं तो रात्रि भोजन का परिहार कर साधना में लग जाते हैं। संवत्सरी पर्व एक शुद्ध आध्यात्मिक पर्व है।

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