राष्ट्रीय अश्व अनुसंधान केंद्र में हिंदी कार्यशाला व अभिनंदन समारोह का भव्य आयोजन



हिंदी: राजभाषा से राष्ट्रभाषा – एक स्वप्न या सच्चाई
बीकानेर, 5 सितंबर। राष्ट्रीय अश्व अनुसंधान केंद्र, बीकानेर में आज एक भव्य हिंदी कार्यशाला एवं अभिनंदन समारोह का आयोजन किया गया। इस अवसर पर केंद्र की पहली राजभाषा पत्रिका “अश्वराज” का विमोचन भी हुआ। कार्यक्रम का केंद्रीय विषय था – “हिंदी: राजभाषा से राष्ट्रभाषा – एक स्वप्न या सच्चाई”, जिस पर गहन चर्चा हुई।
कार्यक्रम की अध्यक्षता और उद्घाटन
कार्यक्रम की अध्यक्षता केंद्र के प्रभागाध्यक्ष डॉ. एस. सी. मेहता ने की। उन्होंने अपने उद्बोधन में कहा कि हिंदी को राजभाषा से राष्ट्रभाषा बनाने का विषय जटिल होने के साथ-साथ समसामयिक भी है। उन्होंने इस बार कार्यशाला के प्रारूप में बदलाव करते हुए बीकानेर केलगभग 20 प्रमुख साहित्यकारों को आमंत्रित किया। डॉ. मेहता ने मौजूदा स्थिर सरकार का उल्लेख करते हुए कहा कि कार्यक्रम की अध्यक्षता करते हुए केंद्र के प्रभागाध्यक्ष डॉ. एस. सी. मेहता ने कहा कि यह एक समसामयिक लेकिन जटिल विषय है। उन्होंने कहा, “आज देश में एक स्थिर सरकार है जो कठिन निर्णय ले रही है, ऐसे में यह संभव है कि हिंदी का राजभाषा से राष्ट्रभाषा का सफर शीघ्र ही पूरा हो जाए। तर्कसंगत रुप में कहा कि धारा 370 जैसे कठिन निर्णयों लेने के दौर में हिंदी का राष्ट्रभाषा बनना भी संभव है।




पत्रिका अश्वराज का विमोचन


कार्यक्रम में केंद्र की पहली राजभाषा पत्रिका “अश्वराज” का विमोचन अतिथियों द्वारा किया गया। इस पत्रिका को हिंदी के प्रचार-प्रसार और अनुसंधान के क्षेत्र में एक महत्वपूर्ण कदम माना जा रहा है।
संचालन और विचार-विमर्श
कार्यशाला का संचालन संपादक और समाजसेवी जैन लूणकरण छाजेड़ ने किया। उन्होंने कहा कि कुछ राज्यों में हिंदी के प्रति विरोध की स्थिति उत्पन्न की जाती है, लेकिन यदि सभी संकीर्ण विचारधाराओं से ऊपर उठकर सोचें, तो हिंदी राष्ट्रभाषा बन सकती है। उन्होंने आर्टिफिशियल इंटेलिजेंस (एआई) के युग में हिंदी के महत्व को रेखांकित करते हुए वैश्विक प्रगति पर भी जोर दिया। छाजेड़ ने कहा कि हिंदी भारत में सबसे व्यापक रूप से बोली जाने वाली भाषा है। लगभग 44 % लोग हिंदी को अपनी मातृभाषा या दूसरी भाषा के रूप में बोलते हैं। यह फिल्मों, साहित्य, मीडिया और शिक्षा में भी प्रभावशाली है। अपने विचार रखते हुए छाजेड़ ने कहा कि वैश्वीकरण और तकनीकी क्षेत्र में अंग्रेजी का दबदबा हिंदी के प्रचार में बाधा बनता है। नौकरी और शिक्षा के क्षेत्र में अंग्रेजी को प्राथमिकता दी जाती है।
हिंदी मुख्य रूप से उत्तर भारत में प्रचलित है। दक्षिण और पूर्वोत्तर भारत में इसके प्रति उदासीनता या विरोध देखा जाता है, क्योंकि इसे “उत्तर भारतीय भाषा” के रूप में देखा जाता है। उन्होंने कहा कि अंग्रेजी अभी भी उच्च शिक्षा, कॉर्पोरेट जगत और अंतरराष्ट्रीय संचार की प्रमुख भाषा है। इसे हिंदी की तुलना में अधिक रोजगार के अवसर प्रदान करने वाली भाषा के रूप में देखा जाता है।उन्होंने कहा, “विभिन्न प्रांतों के लोग यदि संकीर्ण विचारधारा से उबरकर सोचेंगे, तो हिंदी राष्ट्रभाषा बन सकती है।”
मुख्य अतिथि का उद्बोधन
राष्ट्रीय उष्ट्र अनुसंधान केंद्र के निदेशक और मुख्य अतिथि डॉ. अनिल कुमार पुनिया ने कहा कि तकनीक भाषाओं को एकजुट कर रही है। उन्होंने बताया कि अब एक भाषण को बिना दुभाषिए के विभिन्न भाषाओं में सुना जा सकता है। अपने बचपन के अनुभव साझा करते हुए उन्होंने हिंदी लेखन और चर्चाओं के महत्व पर प्रकाश डाला। साथ ही, उन्होंने किसानों के लिए हिंदी में लेखन पर बल दिया।

विशिष्ट अतिथियों के विचार
बुलाकी शर्मा, साहित्यकार: उन्होंने इस विषय को राजनैतिक बताया, जबकि संपादक हरीश बी. शर्मा ने कहा कि हिंदी एक संपर्क भाषा के रूप में उभरी है और सिनेमा एवं साहित्य ने इसे आगे बढ़ाया है। हिंदी को संपर्क भाषा के रूप में अपनाए जाने और सिनेमा व साहित्य के माध्यम से इसके प्रचार-प्रसार की बात पर बल दिया बबिता जैन, प्राचार्य, राजकीय महाविद्यालय, गंगाशहर: उन्होंने नई राष्ट्रीय शिक्षा नीति की चर्चा की और एआई के बढ़ते उपयोग से मानसिक विकास पर पड़ने वाले नकारात्मक प्रभावों को रेखांकित किया। साथ ही, हिंदी को धीरे-धीरे राष्ट्रभाषा की ओर ले जाने की नीति पर बल दिया। महेंद्र जैन, वरिष्ठ अधिवक्ता: उन्होंने न्यायालयों में हिंदी, उर्दू और अंग्रेजी के मिश्रित उपयोग से होने वाली कठिनाइयों पर प्रकाश डाला और इस विषय पर अश्वराज में अपने लेख का उल्लेख किया।
डॉ. नासिर जैदी, समाचार ब्यूरो चीफ: उन्होंने हिंदी और उर्दू को एक-दूसरे की बहन बताते हुए कहा कि दिल की बात किसी भी भाषा में व्यक्त हो सकती है।डॉ. एन. एस. नाथावत, काजरी के हिंदी अधिकारी: उन्होंने हिंदी टीवी चैनलों की बढ़ती संख्या और बाजार के प्रभाव पर जोर दिया। राजेंद्र जोशी, कथाकार: उन्होंने कहा कि हिंदी विश्व की तीसरी सबसे अधिक बोली जाने वाली भाषा है, लेकिन इसे राष्ट्रभाषा बनाने के लिए पूरे देश के समर्थन की आवश्यकता है। नेमी चंद, उष्ट्र अनुसंधान केंद्र: उन्होंने बाजार की अर्थव्यवस्था के हिंदी के विकास में योगदान पर बल दिया। डॉ. देवा राम: उन्होंने बताया कि मेडिकल शिक्षा अब हिंदी में भी उपलब्ध हो रही है, जो हिंदी के बढ़ते प्रभाव को दर्शाता है। डॉ. प्रशांत बिस्सा: उन्होंने नई शिक्षा नीति के माध्यम से हिंदी को बढ़ावा मिलने की बात कही। श्री गौरी शंकर प्रजापत: उन्होंने क्षेत्रीय भाषाओं को साथ लेकर हिंदी के विकास की वकालत की। डॉ. रत्ना प्रभा: उन्होंने कहा कि अनुसंधान कार्यों में वैश्विक स्तर पर अंग्रेजी आवश्यक है, लेकिन हिंदी हमारी अपनी भाषा है,उदारवादी विचारधारा के रूप में हिन्दी को अपनाना चाहिए।
समापन और सम्मान समारोह
कार्यशाला को सारांशित करते हुए डॉ. एस. सी. मेहता ने पूर्व राष्ट्रपति डॉ. ए. पी. जे. अब्दुल कलाम के कथन का उल्लेख किया कि “सपने वही हैं जो हम दिन की रोशनी में खुली आँखों से देखते हैं।” उन्होंने हिंदी को राष्ट्रभाषा के रूप में देखने को एक सपना बताया, जिसे पूरा करने की दिशा में प्रयास जारी हैं। कार्यक्रम में सभी साहित्यकारों को अश्वराज पत्रिका के प्रकाशन में योगदान और हिंदी के प्रचार-प्रसार के लिए साहित्यकारों का सम्मान किया गया । इस अवसर पर डॉ. लेघा, डॉ. रमेश, डॉ. राव, डॉ. कुट्टी, डॉ. जितेंद्र सिंह सहित केंद्र के अन्य अधिकारियों और कर्मचारियों ने भाग लिया।
यह आयोजन हिंदी के प्रचार-प्रसार और इसके राष्ट्रभाषा बनने की संभावनाओं पर विचार-मंथन के लिए एक मील का पत्थर साबित हुआ।