महापुरुषों के चित्र को नहीं, चरित्र को पूजें– राष्ट्रवाद और वसुधैव कुटुंबकम् पर विद्वत् गोष्ठी का दूसरा दिन



बीकानेर , 5 अक्टूबर। दो दिवसीय विद्वत् विचार गोष्ठी के दूसरे दिन आज ‘राष्ट्रवाद और वसुधावाद’ विषय पर आयोजित परिचर्चा में विद्वानों ने अपने ओजस्वी विचारों से श्रोताओं को मंत्रमुग्ध कर दिया। कार्यक्रम की अध्यक्षता पीबीएम हॉस्पिटल के यूरोलॉजी विभागाध्यक्ष डॉ. मुकेश आर्य ने की, जबकि संचालन डॉ. प्रचेतस् ने किया।
राष्ट्रवाद बनाम वसुधावाद: देश-काल-परिस्थिति पर निर्भरता
वक्ताओं ने राष्ट्रवाद और वसुधैव कुटुंबकम् (वसुधावाद) के बीच के संबंध को स्पष्ट किया।
सीए कृतेश पटेल: उन्होंने कहा कि राष्ट्रवाद और वसुधावाद एक-दूसरे के प्रेरक हैं, विरोधी नहीं। माता, परिवार और देश से प्रेम करना नैसर्गिक है। उन्होंने ज़ोर दिया कि वर्तमान में कौन सा विचार अधिक प्रासंगिक है, यह देश, काल और परिस्थिति पर निर्भर करता है। विश्व गुरु बनने के लिए पहले भारत को सुदृढ़ और समर्थवान बनाना होगा।




आचार्य शक्ति सूक्त जी: व्याकरण एवं दर्शन के ज्ञाता आचार्य ने कहा कि ऋषि दयानंद के अनुसार, उपकार अथवा उन्नति की सीमा को राष्ट्रवाद कहते हैं, और जब यह सीमा समाप्त हो जाती है तो वह वसुधावाद कहलाता है।



आचार्य रवि शंकर (इंजीनियर): उन्होंने बताया कि किसी एक देश को केंद्रित कर बनाई गई योजना राष्ट्रवाद है, जबकि संपूर्ण विश्व के लिए बनाई गई योजना वसुधावाद है। उन्होंने कहा कि दोनों विचार भिन्न होते हुए भी विरोधी नहीं हैं, और संपूर्ण विश्व का विकास ही वसुधवाद है।
महापुरुषों के चरित्र का अनुसरण आवश्यक
परिचर्चा में कई विद्वानों ने राष्ट्र की वर्तमान स्थिति और विकास के रास्ते पर विचार व्यक्त किए।
आचार्य रवि शंकर ने कहा: “हमने अपने महापुरुषों के चित्र की पूजा की है, चरित्र की पूजा नहीं की, यही हमारे दुखों का कारण है।” उन्होंने कहा कि एक भाषा, एक मत और एक धर्म के बिना राष्ट्र का विकास संभव नहीं है। उन्होंने आडंबरों और अंधविश्वास से दूर होकर उज्जवल भविष्य बनाने पर जोर दिया।
सुरेश भाई चावड़ा: उन्होंने कहा कि प्रत्येक नागरिक को अपने राष्ट्र की भाषा, संस्कृति और इतिहास को सर्वोपरि रखना चाहिए। उन्होंने महर्षि दयानंद के कथन को दोहराया कि मनुष्य वही है जो अन्यायी बलवान से न डरे, मगर दुर्बल सत्यवादी से अवश्य डरे।
वेदों की दृष्टि में राष्ट्रवाद
मुनि सत्यजीत जी (रोजड, गुजरात): उन्होंने जापान, कोरिया, चीन और अमेरिका के राष्ट्रवाद से भारत के राष्ट्रवाद की तुलना की। उन्होंने कहा कि वेदों की दृष्टि में ईश्वर ने कोई सीमाएँ नहीं बनाईं; उन्होंने संपूर्ण विश्व को समान संपदा प्रदान की है। उन्होंने वेदों के अनुसार मात्र राज्य-वृद्धि के बजाय गलत को ठीक करने पर बल दिया।
डॉ. ज्वलंत शास्त्री: उन्होंने वेदों के संदर्भों से राष्ट्रवाद की व्याख्या की। उन्होंने राजा राममोहन राय, वामपंथ, पूंजीवाद और समाजवाद के संदर्भों में भी इसकी विवेचना की। उन्होंने कहा कि जब तक सांप्रदायिकता के खिलाफ बिगुल नहीं बजाया जाएगा और जातियों के मतभेद नहीं मिटाए जाएँगे, तब तक राष्ट्रवाद की सही व्याख्या संभव नहीं।
कार्यक्रम के अंत में आर्ष न्यास के संस्थापक राम नारायण स्वामी और माता कौशल्या देवी को भी उपस्थित दर्शकों और गणमान्य व्यक्तियों ने याद किया।
